Saturday, December 22, 2012

मुश्किल होने लगा है अब

मुश्किल होने लगा है अब
पहले निराशा हताश नहीं करती थी
हर दुत्कार पता नहीं क्यों संभल संभल जाती थी
हर कटाक्ष की प्रतिध्वनी कुछ मुलायम कुछ संगीतमय हो आती थी
तुम्हारी उपेक्षा का  जाला  भी रेशम से बना था
कुछ उम्र कुछ उत्सर्ग कुछ समर्पण
बंधा देहिक मांसलता से
लिपटा प्रेम के मोटे मुलायम कम्बल मे-
हताशा नहीं होती थी .

पर अब मुश्किल होने लगा है
प्रश्नचिन्ह कुछ रोमानी सोचने को मजबूर नहीं करते
यथार्थ का यौवन अब रोमांचित नहीं करता
समझ थकाती है
तुम्हारी असफलता अब नहीं छेढ़ती
मेरी समझ के छोटे पड़ जाने के प्रलाप

अब कोई ओट  नहीं है
कोई भरम नहीं जो रोके रखे
यथार्थ के प्यासे प्रेतों को

किसको आवाज़ दूं ?
आज भी दया का  नाम नहीं दे सकता इसे
प्रेम- अगर है तो बहुत दूर है
और मैं थक रहा हूँ
मुश्किल होने लगा है अब 

Saturday, November 10, 2012

प्यास के अजीब स्थापत्य

प्यास की तरेड़ो में जीवाश्म सा दफन
सूखा झल्लाया
ढूँढने पर भी न मिलने वाले दंश सरीखा
ये मनोभाव।
दर्द की कथ्थई  झिल्ली के पुल पर खुरच खुरच कर
अपना अर्थ तलाशता।
प्यास के अजीब स्थापत्य
अंतरतम मर्मस्थलों पर खड़े
समझ के काँटों के प्रकाशस्तंभ
भटकाते आनंद के अंधे पोतों को।
कोहरे से बने संशय
नाचते
उन्मुक्त उन्माद के शवों पर।
पाप की आहुति के सुलगते ढेर पर
बैठा वो मनोभाव 
घिर रहा है डर के सूखे तिमिर में
कहीं समझ का सवेरा पूरा न हो जाये।

Wednesday, May 23, 2012

ये मनोभाव

एक चमचमाती लकीर 
गीले शांत आनंद की 
साधी  स्थिर उन्मत्ता से. 

मौन किलकारी 
घनीभूत सर्द कंपकपाती 
गतिहीन आशंकाओ की
थामी उल्लास के गहरे सन्नाटे से.

भीषणतम  नादों की दो हथेलियों के
नर्म अंधेरो से नशीले 
ये मनोभाव 
आखिर सम्हालने क्यों पड़ते हैं?


 

Wednesday, May 9, 2012

सौदा बुरा नहीं है

मांसल विमुखता का उन्माद,
उन्मुक्त उपेक्षा का अट्टहास,
बांधे तो रखता है।
मादकता के आले मे 
पाँव रख 
जीवन की अटारी से
जिजीविषा बटोरना,
सौदा बुरा नहीं है।

-   जून 2005

Tuesday, April 10, 2012

चमकते सुर का एक कांटा

किसी चमकते सुर के कांटे से
दिमाग के अय्याशगाह में
उकेरी थी एक नीली झील।

झील में से सूखी निकलती
मेरी पराजित हसरतें
सुख आह्लाद और उन्माद की काजल कोठरी
और शफ्फाक हार लपेटे हुए बाहर आता मेरा संतुष्ट सा एक प्रेत।

तिलस्मी भुलभुलिया में और भटके
न खोने का आवारा रोमांच न रहस्य की छेड़ती सी चुभन
उठा कर स्वयं की यादों की छेनी
कुरेदी एक सुरंग
यथार्थ के चीखते शहर में।

कर्णभेदी उत्पात रंगीनियों के दैत्यों का
मोहक सम्मोहन ज़िन्दगी के मांसल सौष्ठव का
कुछ उछलता तो है
एक तस्वीर सी उभरती भी है,
पकड़ने को लपकती भी हैं अभिलाषाएँ
पर अनगढ़ा सा एक धुँआ निर्विकार निकल जाता है

रह जाता है वही चमकते सुर का एक कांटा
अपरिभाषित श्लेष्मी झिल्ली का एक पुल
संभावना एक उलझाव की, एक लगाव की।

Sunday, January 29, 2012

सफ़ेद निर्जीव शून्यता कागज की

पथरीला सन्नाटा, स्तंभित संवेदन
भूलने लगे हसरतों की दुत्कार भरी आहटें ।
जर्जर स्वय की भरभराती मिटटी में भी देख लेते थे
चमचमाता उदास संगीत।
पतन पराजय का सुकून भरा अपमान भी छेड़ जाता था
कुछ अनसुने से राग।
तुम्हारी उपेक्षा खींच ले जाती थी अहसासों के
काले डरावने से ख्वाबगाह में।
हसरतें सहमती थीं तो भी अबूझ अँधेरा
गढ़ता थे सांवले संगमरमर के कुछ सकपकाए से प्रश्नचिंह
अब है सफ़ेद निर्जीव शून्यता कागज की
नहीं पूछती 'कौन तुम'