Tuesday, February 17, 2015

विस्मृत भी कहीं सांस लेता है।

विस्मृत भी कहीं सांस लेता है।
कहीं आदतों के खंडहर में
तो
कही क़र्ज़ सी भारी उस मुस्कराहट में।

कुछ  बन कर सुर उजाड़ बियाबन का
छुप कर सुस्ताता है
हड्डियों के इस किले में
कुछ
बन कर चुभन फैलता है
सीलन की तरह

कुछ भी नहीं से परे
सलाखों के बीच के खालीपन सा
लिए खड़ा है
एक मुठ्ठी ब्रह्माण्ड
विस्मृत भी कही सांस लेता है।

ये उठाये हुए है अपनी नारकियता में
असीम दया के परचम
चाहता तो बैठा रहता
कुलबुलाते सर्पो सा
प्रत्यक्ष संवेदन की बाम्बी में

शायद वो समय की माप में नहीं आता
जिसमे जैसे बीमार के सपने सा वह
खुद को उकेर ले काले अँधेरे से
और आ खड़ा हो
स्मृति की काल कोठरी से
अनाथालय में
प्रत्यक्ष संवेदन।।

फिर भी
किनारे जा बैठा
पराजित कुलीन सा
छोड़ कर हमें अपने सीमित सुरक्षित
छोटे से खिलौने से यथार्थ में
अपनी अबूझ समझ में मुस्कुराता
विस्मृत भी कही सांस लेता है।