Saturday, October 26, 2013

मौत की लज्ज़त

डूब कर लबालब मुलायम ख्यालों में उठाई थी कलम
कागज तक पहुंचे तो खामोश हो गए
सोचा था आज तुम्हे लिखेंगे, अन्गढ़ी ख़ामोशी की स्याही जुटा भी ली थी
लिखने बैठे तो चुप्पी ही प्यारी लगने लगी
नयी टीस के उबाल ने बिछा दिया दर्द का नीला बिछोना, उभरने लगी थी कुछ पिघली सी आयतें
धूओं से बनते वो मेरे संवेदनो के प्रेत, खीचने लगे चढ़ती प्यास की दरारें
कहते
लिखो
लिखने बैठे तो रोजगारी अच्छी लगने लगी
न जाने अन्दर क्या कब मर गया
मौत की लज्ज़त भी कम लगने लगी