Thursday, November 5, 2015

इस सृष्टि का वो एक कोना

इस सृष्टि का वो एक कोना
जहाँ मैं खुद को सबसे सुन्दर और अकलमंद समझता था।
मेरी घबराहटें डरतीं थीं वहां झाँकने से
मेरी कमजोरी रो देती उसकी धमकी भर से
कुछ था उस कमज़ोर से मुस्कुराते कोने में
जो एक ढलती सी थपकी में
सिखा जाता था खुद पे मोहित हो जाना


कुछ था उस उदार आश्वस्त से उस कोने में
वहां रोना मज़बूत करता था
वहां छोड़ आते थे अपने सबसे कोमल
अंतरतम  मर्मस्थल

वो कृशकाय मालकिन उस कोने की
देख भर लेती थी
जीवन बाहें चढ़ा दुनिया जीतने निकल जाता था
मुस्कुरा देती थी
सब सारों का सार समझ की चाशनी बन जाता

अजीब हिसाब था उन नजरों का
हम लौह पुरुष भी थे
गुड्डे गुडिया से खिलोने भी
वो स्नेह का मैदान
उस पर समझ का वो खेल
वो कोना कुम्हार का चक्का भी था

वो लड्डू का डिब्बा, वो बटुआ,
पानी में भीगे तुलसी के पत्ते
वो उनके अक्षय पात्र
हमारी हर हसरत उस कोने में बौनी थी

वो सफ़ेद बालों का ब्रह्मांड
अधमरी मांसपेशियो के वो सर्वशक्तिशाली हाथ
लगभग मुर्दा  पर  सपनों से सुन्दर वो पैर
जो मेरी पीड़ा हरने सात हिमालय फांद चले आते थे

दशकों उस बिस्तर से
एक पुराना नोकिया
उठता था
और चुन बुन जाता था खुशियाँ
इस विशाल संसार के छे कोनो पर

अजीब है माँ के होने का पूरापन
नहीं है
पर उसका वो  कोना......

पुराने होते रिश्ते

पुराने होते रिश्ते

कुछ खिलखिलाहटे
इस लम्बे सफ़र की साझा पदचापों की
समेटे
खंडहर साथ में हारी जीती उन लडाइयों के।

समय से सींची
एक झीनी सी हंसी का सागर
समेटे
सिलसिले उन गुनगुनाती शिकायतों के।

इतिहास की बारिश से सौंधी
एक गैर जरुरी झिड़की
समेटे
पुलिंदे उन कीमती समझौतों के।

कुछ खुशियाँ बहुत गहरी होती हैं
बगैर गुदगुदाए भी
भूले दर्द सी साथ रहतीं हैं
क्योंकि
वो समय के धीमे संगीत से गूंधी गयी होतीं हैं।

13 September, 2015

पता तो है

पता तो है
पर चलो आज जिद का कारोबार करते हैं
आज मना करते हैं
ख़ुशी से दुश्मनी की इस आदत को

पता तो है
पर चलो आज लड़ ही जाते हैं इस उलझे गुबार से
आज भूल जाते हैं
खुद की रोती भूलों को

पता तो है
पर चलो आज इस सूनी रात में बुन दें कुछ नई गजलें
आज तोड़ देते हैं
इस काले कोहरे के प्याले को

पता तो है
पर आज जी लेते हैं उधार के एक गीत को
आज रोक लेते है
अपनी ही धड़कन को खुद को गाली देने से

पता तो है
पर आज लुटने से  पीछे क्या हटना
आज एक आकाश गंगा पार करते है
बुलबुलों से बने इस उम्मीद के ख्वाब पर

पता तो है
पर आज नहीं मानते इस दूरी को
आज पोसेंगे
खालिस अंधरे से बनी इस बेकरारी को

पता आखिर क्यों है......

August 2015

इस पिघलते समर्पण में

सुन्न सन्नाटा सफ़ेद
दिल के झोलों के रेगिस्तान
रेशमी बे करारी के सुस्त धुंए
आओ लाते है झीनी सी स्याही
और लिखते हैं तुम्हारा नाम
इन सांस लेते अंधेरों पर

सुलगता आमंत्रण
एक उलझता सा आकर्षण
एक बोलता सा वजन
लरजते पाप से इस क्षण में
आओ मिलते हैं किसी भटकते चाँद पर

सुनहरा छलकता एक पागलपन
घने कोहरे से बनी दीवार सा उन्माद
इस पिघलते समर्पण में
आओ बुन ले एक उमर

कहते हैं पुराने रिश्ते पुराने हो जाते हैं
पर क्यों होता है खंडहर का एक कोना
सारे असलीपन का सबसे शानदार घर
इतिहास के आराम से भरा साथ
साझा एक ब्रहमांड

हर बीता पल ,
यादों का एक दुर्ग
खुलते ख़त सा संभावनाओ से भरा

एक यात्रा
अजीब, कितनी उदार
सिर्फ झूमते बादल सा एक साझेपन का एक ठप्पा
आओ मुझे अहसास करा दो कि
मेरी दो बाहें भी है
घोंसला एक संसार का

29 August 2015

तुम हो या ....

आंखे है या
साथ से दहकती एक साझा शाम

देखा तो
रिश्तों की उलझी सी सहूलियत
कुलबुला उठी

रचा तो
घिर आया सपनों की  बूंदों से सिला
जिन्दा मुलायमअँधेरा

सोचा तो
पसर गया टीसों के चुभते बिस्तर पर
उद्दाम उछाह उन्माद

मिले तो
सकपका गया सुलगती हसरतों का
बेलगाम पागलपन

तुम हो या
आवारा दिन के भटकाव का
भूला हिसाब

20 August 2015