Wednesday, April 30, 2014

गुलज़ार को फाल्के सम्मान के अवसर पर-

कोई कोई दिल के अन्दर बैठ कर रचता है।
महींन हसरतो से बुनता है,
गीतों की झीनी सी एक दीवार।
पन्नो पर बिखरते है सुर्ख तीखे रंग
मिलते हैं आवारा अल्हढ़ अय्याश टीसों से,
एक साजिश है अन्गढ़ी आस की
एक उमंग है झूलती झुलसती प्यास की।
सामने बैठी सुबह
अलसाए भीगे बाल
थरथराती मादकता
रजाई सरीखा काला आराम
मिलते हैं उस ठिठकी हुई कलम की नोक पर।
तुम हो तो
आत्मा की गहरी कालकोठरी में भी
खिचते है
सुरमई इन्द्रधनुष
तुम हो तो मुलायमियत का कारोबार है।