Monday, September 2, 2019

समझ एक भरी पूरी निर्धनता

समझ एक ठहराव है 
समझ का एक अभाव होता है 
सामंजस्य सम्मोहन और गति विहीनता

समझ एक लय की प्राप्ति है 
एक विलंबित 
प्रायः स्तब्ध लय
गति से परे 

समझ एक भरी पूरी निर्धनता है
गहरे नशे में सुस्त नदी
न भूख , न क्रोध , न तड़प
और शायद न ही कविता

समझ एक मुकम्मल प्यार है 
एक रंगीन सहमापन 
एक सुरों का बना पिंजरा
एक रुका हुआ घना काला आराम
 
समझौते  ज़िंदा रखते है
शायद सुखी भी
समझौते क़ीमत वसूलते है
और 
समझौते समझ से बने होते है। 
 
9 Aug, 2019

कृति- एक साझा हँसी

हर कृति हर उस शब्द की वंशज है जो हमने पढ़ा।

हर उस क्षण की पुत्री है जिसे हमने जिया।

हर उस साझा हँसी की विरासत है जिसे हमने छलकाया

हर उस दुःख , समझौते और प्रेम जिनकी हमने गवाही दी, क़ीमत दी।

कृति का वज़न
उसका कलेवर
उसका साँस लेता असर
उन क़ब्रों से है
जो हैं तो किसी दूसरे के बियाबन मैं
पर खुलती हैं हमारे सूने अंतर्मन में

कृति

एक बड़े आसमान में उसकी हवा की छेनी से
अपना एक कोना उकेरती है
उस सफ़ेद भीड़ के बने ख़ाली पन में
वो मेरा सम्वेदन ही तो है
जो रचता है नए पुराण
उन प्राग़ेतिहासिक दर्दों के
जिन्हें मुझ से पहले भी कईयों ने छेड़ा था।

इस राग की नदी में हम सब साझा हैं
कौन सी बूँद किस पाताल में कौन सा सुर छेड़ेंगी
ये प्रारब्ध का मुद्दा है
शोध का नहीं
 
8 July, 2019

कुछ सूनेपन सा गहरा महसूस करूँ

एक लम्बी साँस सी बहती नीली नदी में 
सुलगता एक सपना 

चुभते सन्नाटे में बदल जाता है 
सीधी बात सा मुश्किल सपना

शब्द साज़िश करते 
आरोप सी ख़ामोशियों के महल बुनते 

कुछ सूनेपन सा गहरा महसूस करूँ और 
गहराई तुमको दूँ उपहार में
न विद्वता, न सौंदर्य बोध और न ही शर्म 
बस हो लरजता तड़पता 
मेरा सम्वेदन
और 
आदिम ख़ालिस आह्लाद सी 
सहज नग्न 
मेरी अभिव्यक्ति





8 June, 2019

बंजर नींद

खोजूँ
ताम्बे के झरने का पिघलता संगीत
रोने के आह्लाद से भारी धुँध
हार, पीड़ा और ख़ालीपन से बनी
एक लम्बी पीर सी नदी 

नशे सी हावी होती शिकायत
बंजर नींद 
जिसके ख़्वाब भी सोए हुए हैं
 
9 April, 2019

आप रहो न मेरे साथ

सुबह आज भी उतरती है 
वैसे ही साँस लेती नमी के साथ 
वो मोहक शांति 
और अंगड़ाई लेते दरख़्त 

फिर क्यों एक फुसफुसाता ख़ाली पन
आ खड़ा होता है। 
बिसरे दोस्त सा 

आज भी सफ़र अमीर करता है
संभावनाओं से 
स्मृतियों से 
साझा साधे पलों से 

फिर क्यों एक रिसती टीस 
उभर आती है 
दिल की दीवार में सीलन सी 

आज भी आवारा फ़ितूर 
डुबोता है 
किसी नशीली  उलझन सा 

फिर  क्यों एक सर्द चुभन
तराश जाती है 
एक सिसकता सा अँधेरा 

उफनता  तड़प ढूँढ़े
उस ख़ालीपन को 
टीस को और 
चुभन को 

आप रहो न मेरे साथ 
अपने न होने का डंक बन कर ।


14 Oct, 2018