पथरीला सन्नाटा, स्तंभित संवेदन
भूलने लगे हसरतों की दुत्कार भरी आहटें ।
जर्जर स्वय की भरभराती मिटटी में भी देख लेते थे
चमचमाता उदास संगीत।
पतन पराजय का सुकून भरा अपमान भी छेड़ जाता था
कुछ अनसुने से राग।
तुम्हारी उपेक्षाऐ खींच ले जाती थी अहसासों के
काले डरावने से ख्वाबगाह में।
हसरतें सहमती थीं तो भी अबूझ अँधेरा
गढ़ता थे सांवले संगमरमर के कुछ सकपकाए से प्रश्नचिंह
अब है सफ़ेद निर्जीव शून्यता कागज की
नहीं पूछती 'कौन तुम'