Friday, June 10, 2011
Wednesday, June 8, 2011
काली स्वीकृति का बियाबान
चौंकता स्पंदन संशय का
तराशता
नए समाधान समय की नक्काशी में
बौखलाए प्रश्नचिन्हों ने उन्मादित हो
किया प्रलाप सृजन का
काली स्वीकृति का बियाबान
आहत अचकचाए 'क्यों' की दबी सी गूँज
रच गयी
दर्द के नये पुराण
तराशता
नए समाधान समय की नक्काशी में
बौखलाए प्रश्नचिन्हों ने उन्मादित हो
किया प्रलाप सृजन का
काली स्वीकृति का बियाबान
आहत अचकचाए 'क्यों' की दबी सी गूँज
रच गयी
दर्द के नये पुराण
पिघले बुखार सा सुरूर
सिमटा सा असीमित आनंद
खूंटे जिसके आकाशगंगा के पार एक हरे मैदान में,
ह्रदय में ठुकी कील की चुभन
तरल हो फैलता घनीभूत उल्लास,
हसरतों के बियाबान का सौंधापन
लरज़ लरज़ कर उकसाता
कुछ पाप करने को,
यथार्थ के नश्तर लुप्त होते
खुशफहमियों की चीटियों के प्रलय मे,
उन्माद की भट्टी के केंद्र में जमी बर्फ सा
कुछ सफ़ेद, कुछ सुरमई ज्यादातर स्याह
कुछ ऐसा था
वो पिघले बुखार सा सुरूर
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