एक परत सी चढ़ जाती है
घर की किवाड़ो पर
किसी एक के न होने की ।
भूले रहते हैं
तब भी
जब ब्रह्माण्ड मुड़ कर देखता है
खामोश खाली उस कतरे को।
घर की किवाड़ो पर
किसी एक के न होने की ।
भूले रहते हैं
तब भी
जब ब्रह्माण्ड मुड़ कर देखता है
खामोश खाली उस कतरे को।
अबूझी उलझन सा
अमूर्त उदार
बिन मांगे सब देने को तैयार
ऊँघता रहता है
किसी एक का न होना ।
भूले रहते हैं
तब भी
जब प्रश्नचिन्ह बन दौड़ती है
गर्मी की खाली गली।
यादों का क्या
भूले हुए उधार सा कभी भी दबोच लेती हैं।
अमूर्त उदार
बिन मांगे सब देने को तैयार
ऊँघता रहता है
किसी एक का न होना ।
भूले रहते हैं
तब भी
जब प्रश्नचिन्ह बन दौड़ती है
गर्मी की खाली गली।
यादों का क्या
भूले हुए उधार सा कभी भी दबोच लेती हैं।