Friday, June 26, 2015

किसी एक का न होना

एक परत सी चढ़ जाती है
घर की किवाड़ो पर
किसी एक के न होने की ।

भूले रहते हैं
तब भी
जब ब्रह्माण्ड मुड़ कर देखता है
खामोश खाली उस कतरे को।


अबूझी उलझन सा
अमूर्त उदार
बिन मांगे सब देने को तैयार
ऊँघता रहता है
किसी एक का न होना ।

भूले रहते हैं
तब भी
जब प्रश्नचिन्ह बन दौड़ती है
गर्मी की खाली गली।
यादों का क्या
भूले हुए उधार सा कभी भी दबोच लेती हैं।

अब सलीका आड़े आ जाता है

अच्छा खासा सोच लेते थे
कुछ अय्याश गीत यारी मान
चले भी आते थे।

शिथिल होते सपनों को भी शर्म नहीं आती थी
अपनी गुनाहगार ज़लालत साझा करने में।

हो जाती थी बेपरवाह गुफ्तुगू
अपने रेशमी पापों से।

बुझी सिगरट सी चपटी हसरतें भी सोच लेती थी
इक अन्गढ़ी सी जीत।
अब सलीका आड़े आ जाता है।