Tuesday, December 6, 2011

कुछ तो है जो है साये में

झूमता है कि बसंत का झोंका है या कोई दावानल
कुछ तो है जो है साये में

लती है कि कोई ललक है या कोई फ़न हलाहल
कुछ तो है जो है साये में

सुन्न है कि मेरी हसरतों के स्थापत्य
है या कोई बेकसी जो देती आदत का आराम
कुछ तो है जो है साये में

पुकारते हैं कि पाप करने के आमंत्रण
है या मेरे पागलपन का चिडचिडाता कोलाहल
कुछ तो है जो है साये में

स्थिर निशब्द लससाते संदेहों के इस दलदल में
ये साये हैं कि मेरे अस्तित्व कि उजाड़ बाम्बियाँ

Sunday, October 16, 2011

चलो कुछ करें

उहापोह की झील में हिचकोले खाती महत्वाकान्छा
उकता देने वाली बहस से लम्बे इस जीवन का
चलो कुछ करें
कुछ पाप, कुछ संशय, कुछ अँधा जूनून
हसरतो के सरकते प्यालों में उकेरे हुए इन सपनो का
चलो कुछ करें
सहमा अधखुला अचकचाता सा इच्छाओं का झुरमुट
अँधेरे से पसरे इस सन्नाटे का
चलो कुछ करें
चौकीदार की रात सी लम्बी इस दिनचर्या में
इस पिटी हुई मादक रसिकता का
चलो कुछ करें



Thursday, August 18, 2011

भयभीत प्रसन्नता

उछलती उत्साहित सहमतियाँ
साहसपूर्ण संभावनाओं का बेहिचक आलिंगन
कुल्मुलाती उत्कंठा पाती सुखद सुरक्षित आमंत्रण
अपने छुद्र अस्तित्व से उठ कर
कुछ ब्रह्मांडीय छूने का अन्गढ़ा सा अहसास
और स्वच्छ जीवन शक्ति का निर्मल उल्लास
सही है
समय का दर्पण
सही है
जन भावनाओं का मूर्तीकरण
पर संशय क्यों
और कुछ भय भी

(अन्ना आन्दोलन के दौरान )

Wednesday, August 3, 2011

सुस्त आहें

अय्याश लम्हों की कुछ सुस्त आहें
एक अल्हड़ सी प्यास, एक अचकचाती सी फ़िक्र
फुर्सत का आरामदेह नशा उकेरता
उछाह भरे शुन्य मैं नई टीसें
उदासी के धंसते दरिया में खींचता
खालीपन के कसीदे

Friday, June 10, 2011

विदा मकबूल फ़िदा

उन टीस से बिखरे रंगों का
वो उन्मादित वैराग्य
रसिक संवेदनाओं का छना हुआ तांडव
नटखट इठलाती रेखाओं के सम्राट
ऐ रंगीले जोकर
मर्यादित अति के जादूगर
शैली की मूर्तिमान परिभाषा
अवसादित कठमुल्लेपन की तिलमिलाहट
और तुम्हारा हलके से मुस्करा जाना
उन खूबसूरत यादों के टेंट पर
हमारी दुत्कारों के फुनगे
दुःख है, शर्म है
पर तुम्हारी कला है तो
उत्सव भी है.

Wednesday, June 8, 2011

काली स्वीकृति का बियाबान


चौंकता स्पंदन संशय का
तराशता
नए समाधान समय की नक्काशी में
बौखलाए प्रश्नचिन्हों ने उन्मादित हो
किया प्रलाप सृजन का
काली स्वीकृति का बियाबान
आहत अचकचाए 'क्यों' की दबी सी गूँज
रच गयी
दर्द के नये पुराण 

पिघले बुखार सा सुरूर

सिमटा सा असीमित आनंद
खूंटे जिसके आकाशगंगा के पार एक हरे मैदान में,
ह्रदय में ठुकी कील की चुभन
तरल हो फैलता घनीभूत उल्लास,
हसरतों के बियाबान का सौंधापन
लरज़ लरज़ कर उकसाता
कुछ पाप करने को,
यथार्थ के नश्तर लुप्त होते
खुशफहमियों की चीटियों के प्रलय मे,
उन्माद की भट्टी के केंद्र में जमी बर्फ सा
कुछ सफ़ेद, कुछ सुरमई ज्यादातर स्याह
कुछ ऐसा था

वो पिघले बुखार सा सुरूर