Friday, October 13, 2017

शोक

तुम्हारे न होने से लीपा हुआ 
मेरा होना,
पिघलता उजड़ता 
स्मृति का पिंजर,
यादों के चिथड़े बटोरती
मेरे चैन की मृगतृष्णा।

शोक होता नहीं,
बस जाता है 
हड्डियों में, कपड़ों में, किवाड़ों में
एक साथी की तरह 
कई बार एक चैन भरी गोद सा 

आप तो हो नहीं
आपके शोक का ही सहारा
इतना गहरापन तो 
आपकी तस्वीर में
आपके शोक में भी है

रहो मेरे साथ 
चाहे न होने का डंक बन कर ही ।
 
13 Oct, 2017

लम्हों के पतझड़

यूँ ही नहीं कहते कि
दिन 
डूबता है,
जैसे पुरानी छत से 
मिट्टी भरभुरा कर झरती है
वैसे ही 
लम्हों के भी पतझड़ होते है।

अभी तो पूरी मंडली थी
किस्सागो और शिल्पकार पलों की,
पता नहीं कब कहाँ 
घुल से गए 
अफ़वाह से पिघले ख़ालीपन में।

रह गयी है 
जाते खोते नीले धुएँ को 
पोटली में बाँधने की 
दिलफ़रेब हसरत

हो सकता है 
इन लम्हों का हिसाब
सूनेपन की बेरंग स्याही में हो
पर समझोगे तो पाओगे 
ये पल तुम्हारी हस्ती के आँगन को 
अपने न होने से लीप गए हैं। 

ग़ैर मौजूद पदचापों सा 
किसी बग़ैर जी नज़दीकी सा 
सन्नाटोंके झूमते संगीत सा 
एक क़ीमती नशे सा, 
वो खोया पल 
खुरच तो जाता है 
मेरे सम्वेदन को 
बना जाता है 
मेरे होने, न होने को ।

खेद सहित......

तक़ादा सा करते सड़क पर पड़े पथ्थर
अंधेरे में साये सा खड़ा पेड़ 
घूरता 
हवा की गुत्थी भी एक शिकायत सी लिए

मुड़ा तो धड़कन खड़ी थी 
तिरस्कार के शैवाल 
जीवन से बनी साँस भी 
कुछ घिसी कुछ छिली
एक पिघली सी हँसी गुज़री
पूछती

कब लिखोगे हमें

सफ़ेद काग़ज़ का डाँटता सा सूनापन
रोने की कसक भी दूर
समर्पण भी टुकड़ों में 
दर्द भी उधार सा 

एक भूले से सपने में कल मिला था 
शायरी के 
झिझकते उलाहने से 

कब लिखोगे?

सो आज ये 
खेद सहित......
 
30 Aug, 2017