किसी चमकते सुर के कांटे से
दिमाग के अय्याशगाह में
उकेरी थी एक नीली झील।
झील में से सूखी निकलती
मेरी पराजित हसरतें
सुख आह्लाद और उन्माद की काजल कोठरी
और शफ्फाक हार लपेटे हुए बाहर आता मेरा संतुष्ट सा एक प्रेत।
तिलस्मी भुलभुलिया में और भटके
न खोने का आवारा रोमांच न रहस्य की छेड़ती सी चुभन
उठा कर स्वयं की यादों की छेनी
कुरेदी एक सुरंग
यथार्थ के चीखते शहर में।
कर्णभेदी उत्पात रंगीनियों के दैत्यों का
मोहक सम्मोहन ज़िन्दगी के मांसल सौष्ठव का
कुछ उछलता तो है
एक तस्वीर सी उभरती भी है,
पकड़ने को लपकती भी हैं अभिलाषाएँ
पर अनगढ़ा सा एक धुँआ निर्विकार निकल जाता है
रह जाता है वही चमकते सुर का एक कांटा
अपरिभाषित श्लेष्मी झिल्ली का एक पुल
संभावना एक उलझाव की, एक लगाव की।