Thursday, August 13, 2015

सुबह

सुबह
कनेर के पेड़ पर रिश्ते सा उगता
एक पीला फूल
सुबह
थमे से समय की
एक शोख़ ख़ुमारी
सुबह
यादों के पानी से बनी
एक खिलहिलाहट 
 

सुबह
जैसे दो बच्चों के बीच साझा
एक षड्यंत्र
कहीं रात ऊंघती है,
कहीं सपने लपकते है
खामोश शिकायतों के कुछ सिलसिले, 
झूलती खुसफुसाहटें हसरतों की

Wednesday, August 12, 2015

एक कविता लिखनी है

एक कविता लिखनी है।

सफ़ेद ख़ामोशी सी पागल
गुम अपनेपन सी मुलायम
खाली सन्नाटे के दोनो से ढकी
एक कविता लिखनी है।


बारिश को भिगोते शहर सी
खनकती पिघलती बातों सी
शर्माए हुए नशे सी
एक कविता लिखनी है।

करते ही भूले से वादे सी
किसी सिसकते पाप सी
किसी नापाक हसरत सी
एक कविता लिखनी है।

तेरी हिकारत के डंक सी
मेरी समझ के तंग मकबरे सी
इस मरीज दौर के वहशीपन सी
एक कविता लिखनी है।

कुछ दिल में
कुछ दिल के बाहर बिखरे
उस आमंत्रण सी
एक कविता लिखनी है।

कुछ हारने को
कुछ लुट जाने को
पर
बहुत ज्यादा महसूस करने को
एक कविता लिखनी है।

ए मेरी अबूझी टीस
मेरी कविता
कभी लिख मत जाना
तुझको चाह कर उदास रहता हूँ
आदत है मुझे
और एक ख़ुशी भी।

कुछ कर्ज उतारने के लिए नहीं होते

नदी सो रही है

एक नदी सो रही है
चांदनी की चादर ओढे
नीरव सन्नाटा झलता पंखा
एक आदिम गौरवगाथा सी लोरी गाती हवा
शहर ने भी मद्धिम कर लिए
अपने सुर


दिन में मिला था नदी से

न सन्नाटा न हवा
और न ही लिहाज़
सब झपट रहे थे
लालच से बना कोलाहल
शिकायतों का पुल बना रहा था

बस नदी ही थी जो

सोख रही थी
इस हवस, इस वहशीपन को
कुछ दर्द भी थे,
नदी मौके बे मौके
अपने गीले आँचल से
उनको पोंछ देती थी

मैं आश्वस्त था

नदी है तो
सब सम्हाल लेगी
इस लपकते झपकते अभाव की
की इंसानी लय
निकाल लेगी

अब नदी सो रही है

कृतज्ञ शहर, हवा, चाँद
और सन्नाटा

जानते हो,

कुछ अभागे शहरों के पास
नदी नहीं होती।