एक नदी सो रही है
चांदनी की चादर ओढे
नीरव सन्नाटा झलता पंखा
एक आदिम गौरवगाथा सी लोरी गाती हवा
शहर ने भी मद्धिम कर लिए
अपने सुर
दिन में मिला था नदी से
न सन्नाटा न हवा
और न ही लिहाज़
सब झपट रहे थे
लालच से बना कोलाहल
शिकायतों का पुल बना रहा था
बस नदी ही थी जो
सोख रही थी
इस हवस, इस वहशीपन को
कुछ दर्द भी थे,
नदी मौके बे मौके
अपने गीले आँचल से
उनको पोंछ देती थी
मैं आश्वस्त था
नदी है तो
सब सम्हाल लेगी
इस लपकते झपकते अभाव की
की इंसानी लय
निकाल लेगी
अब नदी सो रही है
कृतज्ञ शहर, हवा, चाँद
और सन्नाटा
जानते हो,
कुछ अभागे शहरों के पास
नदी नहीं होती।