Wednesday, November 19, 2014

क्यों चौंकता है मन


क्यों चौंकता है मन 
पता तो है 
ये अहसास 
धुंध से तराशी एक आयत ही तो है 

कुछ सुर इस साज पर नहीं लगते 
गुनगुनाने की हिमाकत 
कुछ और नहीं 
एक छोटा मोटा कुफ्र ही तो है 

अब कोई शुबह नहीं 
तुम्हारी हिक़ारत 
कोई नाज़ ओ अदा का खेल नहीं 
हमारी अर्ज़ी 
इक सिरफिरे का भरम ही तो है 

आज फिर सोचा कि 
दिल की किसी परत में 
उकेरेंगे बारिशों की खुसफुसाहट 
कुछ और नहीं 
राख़ के ढेर से इक गुज़ारिश ही तो है 

क्यों चौंकता है मन 
पता तो है..... 

Monday, November 10, 2014

हारी हुई शर्त सा एक खालीपन

हारी हुई शर्त सा
एक खालीपन
समय की सिलिईयों पर रेंगते हुए
बुनता है
खुशियों के आसमान पर
कुछ नीली खामोशियों के
दायरे

तुम्हारे न होने का अहसास
ही तो है
जो मायने देता है
इन लड़ती झगड़ती टीसों को

शोक मनाता मेरा ये वजूद
कुरेदता हसरतों की राख को
शायद हो कोई सुगबुगाहट
जिन्दा अहसासों की

अब तुम्हारे जाने का ग़म
ही तो है
आखरी सिसकी मेरे उन
जिन्दा अहसासों की

नुकसानों से सपने बुन लेने का हुनर
था हमें
पर इस सदमे पर कोई जादू काम क्यों नहीं आता।