Friday, December 26, 2014

क्या खूब है ये ख़ालीपन

क्या खूब है ये ख़ालीपन
कुछ नहीं से भर देता है पूरी तस्वीर।

होने लगती है मुठभेढ़ कुछ अनजानी सी टीसों से
धूप सा भर देता है उब की सुराही को।

एक भूली सी उम्र सहला जाती है
उन झपटे हुए लम्हों को।

कुछ न पहचाने भूत धुऐं से निकल
खुरच जाते हैं अपने दर्द

वो बातें जिनमें आवाज़ नहीं होती
खड़ी कर देतीं है
बिना जी आवारगी के सिलसिले।

सड़क की आवाजें याद दिलाती हैं
अपने भूले उधारों की

कुछ हसरतें , कुछ पागलपन, कुछ पाप
फुसफुसाता है
चौंकाता है।

इंतज़ार में, पर पूरा मुतमईन एक दरख्त
झुक कर पूछ ही लेता है
चलोगे कुछ दूर मेरे साथ

मैं हूँ कि मुझ में ही उलझा रह जाता हूँ

क्या खूब है ये ख़ालीपन


Wednesday, November 19, 2014

क्यों चौंकता है मन


क्यों चौंकता है मन 
पता तो है 
ये अहसास 
धुंध से तराशी एक आयत ही तो है 

कुछ सुर इस साज पर नहीं लगते 
गुनगुनाने की हिमाकत 
कुछ और नहीं 
एक छोटा मोटा कुफ्र ही तो है 

अब कोई शुबह नहीं 
तुम्हारी हिक़ारत 
कोई नाज़ ओ अदा का खेल नहीं 
हमारी अर्ज़ी 
इक सिरफिरे का भरम ही तो है 

आज फिर सोचा कि 
दिल की किसी परत में 
उकेरेंगे बारिशों की खुसफुसाहट 
कुछ और नहीं 
राख़ के ढेर से इक गुज़ारिश ही तो है 

क्यों चौंकता है मन 
पता तो है..... 

Monday, November 10, 2014

हारी हुई शर्त सा एक खालीपन

हारी हुई शर्त सा
एक खालीपन
समय की सिलिईयों पर रेंगते हुए
बुनता है
खुशियों के आसमान पर
कुछ नीली खामोशियों के
दायरे

तुम्हारे न होने का अहसास
ही तो है
जो मायने देता है
इन लड़ती झगड़ती टीसों को

शोक मनाता मेरा ये वजूद
कुरेदता हसरतों की राख को
शायद हो कोई सुगबुगाहट
जिन्दा अहसासों की

अब तुम्हारे जाने का ग़म
ही तो है
आखरी सिसकी मेरे उन
जिन्दा अहसासों की

नुकसानों से सपने बुन लेने का हुनर
था हमें
पर इस सदमे पर कोई जादू काम क्यों नहीं आता।

Thursday, July 17, 2014

प्यास की आबरू

हारी बाज़ी सी फैली रात का भूला हुआ कतरा
सहम कर कुछ आरजुए बुनता
झगड़ते हुए ये जज़्बात
मन बनाते मुक्कम्मल हो जाने का

सोचा था क़ि तुमको सोचेंगे
अब आरजुओं का क्या है
बेख़ौफ़ चली आती हैं
मैं रह जाता हूँ
तुम्हारी बेरुखी की काली चादर को समेटने के लिए

ये अकेलेपन के बियाबान के कटीले पेड़
तमगे हैं मेरी प्यास के कम रह जाने के
कभी रखो आबरू इन डरे हुए ख्वाबों की
अपने अजनबीपन को नफरत का नाम देकर।

कुछ मिटें
कुछ लुटें
इक बेदाम गुमशुदा सी कुर्बानी में
मतलब खोजेंगे जब अपने आवारापन को सस्ता करने का मन होगा।

Saturday, June 21, 2014

सहमी हुई हसरत सी जिंदगी

पाप की नीली बूंदों से सिल कर
सजा रखी है अफवाह सी उडती जिंदगी
आसमान के स्याह सूनेपन को कुरेदते अक्सर सोचा कि
कैसे लडखडाना कितने सलीके से
बचा लेता है चाल की आबरू
कुछ दाग न हों तो
कैसे झेले कोई इन शफ्फाक भूतो को
एक अपना कोना
अबूझी सोच से बना
जहाँ अपराध बोध आता जाता न हो
हर शह भटकने की कच्ची मिट्टी की
समझ का सवेरा कही अटका हो
किसी सलेटी झुरमुटे में
सुरूर दर्द और उल्लास की बनी दीवारों पर न लगे हो खरा खोटा परखने के चकमक पत्थर

परखते हैं
कितनी सुन्दरता कितनी ख़ुशी और कितना भटकाव्
झेल सकती है ये
सहमी हुई हसरत सी जिंदगी।


Monday, May 5, 2014

आज आंधी का "तुम आ गये हो" सुना

दिल की शफ्फाक तनी चादर पर
गिरा
एक गुदगुदा भारी सा पीला गेंदे का फूल
धप्प!!
चादर हलकी सी झूल गयी
उम्र हो चली है
अन्दर के झोलों
से वाकफियत बढने लगी है
अच्छा लगा
भीतर कहीं कुछ अभी भी धड़कता है
शुक्रिया
तुम आ गए हो
नूर आ गया है।

Wednesday, April 30, 2014

गुलज़ार को फाल्के सम्मान के अवसर पर-

कोई कोई दिल के अन्दर बैठ कर रचता है।
महींन हसरतो से बुनता है,
गीतों की झीनी सी एक दीवार।
पन्नो पर बिखरते है सुर्ख तीखे रंग
मिलते हैं आवारा अल्हढ़ अय्याश टीसों से,
एक साजिश है अन्गढ़ी आस की
एक उमंग है झूलती झुलसती प्यास की।
सामने बैठी सुबह
अलसाए भीगे बाल
थरथराती मादकता
रजाई सरीखा काला आराम
मिलते हैं उस ठिठकी हुई कलम की नोक पर।
तुम हो तो
आत्मा की गहरी कालकोठरी में भी
खिचते है
सुरमई इन्द्रधनुष
तुम हो तो मुलायमियत का कारोबार है।

Wednesday, February 19, 2014

संवेदन के अजनबी

तप्त तमतमाता उद्दीप्त अंधेरो  का एक मटमैला पुलिंदा
सोता
अंतरतम के बिसरे से खंडहरों के तहखाने में
समझ के भटकते प्रकाश स्तम्भ
झुकते
सर खुजाते
इतना उन्मादित आग्रह
इतराती युवा मादकता की  अनगढ़ी सी जिद
और
इतना अँधेरा !
समझ के परे
विस्मृति की झीनी परतों  से बने बियाबान में
कभी सुलगती थी
पाप और आनंद से लीपी
एक भट्टी -
गर्माहट प्रत्यक्ष मूर्त और मांसल
ह्रदय आत्मा और शरीर कि जीवित उत्तेजना
एक प्रकट राग -
आज समझ और संवेदन  का
पराया भटका अजनबी।