Thursday, December 12, 2013

क्यों कुरेदें इन बेजान आरजूओं

झल्लाया पागलपन और
आवारा हसरतों कि उहापोह
पूरी तरह लुट  जाने की ऊबी सी एक ललक,
और वो तुम्हारा चूक चूक जाना
मुझे पाप के पार ले जाने  में ।
सितम समेटे
बेआबरू अहसास बटोरे ,
पता तो है
कुछ महसूस करना है
पर कसक हो तो कुरेदें
इस बेजान आरज़ूओं के ढेर को।
खाली  काला आसमान का कतरा
निचोड़ा तो निकला फकत
खालीपन
ये जिंदगी के मुर्दा ज़र्रे
इतनी शिद्दत से सम्हालने क्यों पड़ते हैं ?

Saturday, October 26, 2013

मौत की लज्ज़त

डूब कर लबालब मुलायम ख्यालों में उठाई थी कलम
कागज तक पहुंचे तो खामोश हो गए
सोचा था आज तुम्हे लिखेंगे, अन्गढ़ी ख़ामोशी की स्याही जुटा भी ली थी
लिखने बैठे तो चुप्पी ही प्यारी लगने लगी
नयी टीस के उबाल ने बिछा दिया दर्द का नीला बिछोना, उभरने लगी थी कुछ पिघली सी आयतें
धूओं से बनते वो मेरे संवेदनो के प्रेत, खीचने लगे चढ़ती प्यास की दरारें
कहते
लिखो
लिखने बैठे तो रोजगारी अच्छी लगने लगी
न जाने अन्दर क्या कब मर गया
मौत की लज्ज़त भी कम लगने लगी

Tuesday, May 21, 2013

जिजीविषा की डूबती नब्ज़


सन्नाटे की ईटों से बनी नींद
नीली ओस की छेनी
हसरतों का पापी प्रेत
उकेरता
ताम्बे के झरनों  से सपने I
कसक के  अलक्षित मदमाते उन्माद से
सिंचा
मीठे नमक का पेड़,
ढांपे एक सुलगती बाम्बी को
जिसमे बरसती  अंतहीन प्यास
ये रिसती सी टीस
ही तो है
जीवन का मूक कोलाहल,
जिजीविषा की डूबती नब्ज़ I
इस डूबती नब्ज की मुर्दा भट्टी
में
राख कुरेदते
कट जाएगा एक और कल्प
इस
सन्नाटे की ईटों से बनी नींद में I