Wednesday, November 22, 2017

खनकती ख़ामोशी

अल्हड़ हवा से सजे थे
बातें शिकायतें और वादे,
फिर क्यों फैल गया
चुप्पी का बुखार


चुप्पी की खनकती ख़ामोशी
घुलती एक सवाल सा बन


नशीले इंतज़ार सा ख़ालीपन


ये दूरी ये ख़ामोशी

ये सवाल और ये ख़ालीपन

क्या ख़ूब है तुम्हारी ये चुप्पी भी


कई तुम मिल जाते हो
तुम्हारे इस न होने में 


23 Nov, 2017

Friday, October 13, 2017

शोक

तुम्हारे न होने से लीपा हुआ 
मेरा होना,
पिघलता उजड़ता 
स्मृति का पिंजर,
यादों के चिथड़े बटोरती
मेरे चैन की मृगतृष्णा।

शोक होता नहीं,
बस जाता है 
हड्डियों में, कपड़ों में, किवाड़ों में
एक साथी की तरह 
कई बार एक चैन भरी गोद सा 

आप तो हो नहीं
आपके शोक का ही सहारा
इतना गहरापन तो 
आपकी तस्वीर में
आपके शोक में भी है

रहो मेरे साथ 
चाहे न होने का डंक बन कर ही ।
 
13 Oct, 2017

लम्हों के पतझड़

यूँ ही नहीं कहते कि
दिन 
डूबता है,
जैसे पुरानी छत से 
मिट्टी भरभुरा कर झरती है
वैसे ही 
लम्हों के भी पतझड़ होते है।

अभी तो पूरी मंडली थी
किस्सागो और शिल्पकार पलों की,
पता नहीं कब कहाँ 
घुल से गए 
अफ़वाह से पिघले ख़ालीपन में।

रह गयी है 
जाते खोते नीले धुएँ को 
पोटली में बाँधने की 
दिलफ़रेब हसरत

हो सकता है 
इन लम्हों का हिसाब
सूनेपन की बेरंग स्याही में हो
पर समझोगे तो पाओगे 
ये पल तुम्हारी हस्ती के आँगन को 
अपने न होने से लीप गए हैं। 

ग़ैर मौजूद पदचापों सा 
किसी बग़ैर जी नज़दीकी सा 
सन्नाटोंके झूमते संगीत सा 
एक क़ीमती नशे सा, 
वो खोया पल 
खुरच तो जाता है 
मेरे सम्वेदन को 
बना जाता है 
मेरे होने, न होने को ।

खेद सहित......

तक़ादा सा करते सड़क पर पड़े पथ्थर
अंधेरे में साये सा खड़ा पेड़ 
घूरता 
हवा की गुत्थी भी एक शिकायत सी लिए

मुड़ा तो धड़कन खड़ी थी 
तिरस्कार के शैवाल 
जीवन से बनी साँस भी 
कुछ घिसी कुछ छिली
एक पिघली सी हँसी गुज़री
पूछती

कब लिखोगे हमें

सफ़ेद काग़ज़ का डाँटता सा सूनापन
रोने की कसक भी दूर
समर्पण भी टुकड़ों में 
दर्द भी उधार सा 

एक भूले से सपने में कल मिला था 
शायरी के 
झिझकते उलाहने से 

कब लिखोगे?

सो आज ये 
खेद सहित......
 
30 Aug, 2017

Tuesday, August 22, 2017

नए आसमान से क्या मांगें

नए आसमान से क्या मांगें
उसके नए होने से ही दिल सम्हल जाता है
युगों से टंगा ये आसमान
कुछ कदम चलो बदल जाता है
हमारा दिल भी अजीब है
जो सम्हल जाता है।


4 April 2017

कुछ गहरा जियें

जीवन का कुछ कारोबार चले
इक सड़क से लम्बे लम्हे मे
इक डूबते से वैराग्य में
सिर्फ होठों पर ठिठकती
इक झीनी हंसी में
कुछ वेदना ढूंढे


अजीब असमंजस
सस्ती ख़ुशी समझ नहीं आती
दर्द का शूल विस्मृत
इक उदास सांस में
एक छिछली सन्तुष्टि के घूँट में
इक इठलाते अल्प विराम में
कुछ वेदना ढूंढे।
कुछ गहरा जियें

गंगा के ठंडे विस्तार सी
कोई गहरी ख़ुशी
खालिस चमकते नीले अंधरे सा
कोई गहरा दर्द
ऊपर ऊपर बहुत जिये
अब डूब कर भी जियें।

19 April 2017

कविता ज़िद भी है

मन के सूखते शमशान
छटपटा कर कुरेदो तो
कविता लिख तो जाती है

अपने अखड़पन में कमज़ोर
अपनी चोटों से तपी
किसी फ़क़ीर के अय्याश लम्हे सी
किसी हारे कुलीन के आख़री दान सी
नशे में हारी मर्यादा सी
लिख तो जाती है 


कविता अगर लत है, लहर है, भरम है
तो ज़िद भी है

7 January 2017

शायरी- एक भूला सा दर्द

धमनियों में धूप सा बहता
पलकों के पीछे जमा
एक भूला सा दर्द
अब अपना सा नहीं लगता


भूले रहते हैं
उन ख़ुशनुमा पराजयों की चुभन
स्तम्भित मौन
छिपा के रखी उन आवारागियों के संगीत

नहीं गुफ़्तगू होती अब
अपनी भूलों के कारवाँ से
ज़िद्दी सितमों के उन
संगमरमर से मुलायम अंधेरों से

कुछ मरती इन रंगीनियों ने मायूस करदिया
कुछ हम भी सयाने हो चले
शायरी को आवाज़ देने का मन तो करता है
पर ऐसे हसीन गुनाह हो जाते हैं, किए नहीं जाते

13 January, 2017

सामान्य का सम्मोहन

कभी रुक कर देखो
तिलस्मी रोमानियत की ख़ुमारी के झुरमुटे को थोड़ा हटा कर ,
दिखेगा...
छोटे सच सा सलोना
सामान्य का सम्मोहन

शायर का काम है उड़ना
कहीं लुट जाना
किसी गुनाह को जी कर अमीर कर देना
मगर
एक कुफ़्र ये भी करके देखो ....
एक उम्र से तराशी
घुले मौन सी शक्ति
नदी सी उदार
भीतर तक तृप्त
शाम के सूरज सी थकी मुस्कुराहट को पढ़ के देखो
उसमें बैठा
सामान्य का सम्मोहन

उन साझा समझौतों से पुख़्ता
ख़ुद के दर्द को नींव में दबा कर
साँस लेता , हँसता
हज़ारों परिकथाओ से गहरा
रोज़मर्रा की सच्चाई से बना प्रेम
उफ़ ये सामान्य का कभी ना दिखने वाला सम्मोहन

15 Feb, 2017

होने चाहिए कुछ घोंसले

वक़्त की खुरदुराहट
महज़
सपनों की मौत का सबब नहीं होनी चाहिए

बनने चाहिए कुछ घोंसले
जहाँ रह सके
शायरी


कुछ सिगरेट के धुएँ से
चाय के धब्बों से बने
अड्डे...
जहाँ रह सके
महफ़िल

उम्र सिर्फ़ झुकाए
उलझन सिर्फ़ उलझाए
प्यार सिर्फ़ डराए
नशा सिर्फ़ गिराए ...

ऐसे में
होने चाहिए कुछ
घोंसले
अड्डे
जहाँ रह सकें
कुछ सहमी सी हसरतें।

June 13, 2017

कई तुम घिर आते हो ख़ालीपन में

किसी सुस्त से मुहल्ले से
एक जैसे पर अलग अलग आवाज़ों से बने
कई मकान होते हैं
ख़ालीपन में

रिसता सा अकेलापन
और उसके छिटके से संगीत
कई भूले रेगिस्तान होते हैं
ख़ालीपन में

जमीं शिकायतों से
धड़कते गुनाहों से
कई फिसलते ठहराव होते
ख़ालीपन में

ये बरसता है
हसरतों की तरह
रिश्तों की तरह उगते
कई उधार होते हैं
ख़ालीपन में

आदत बन गयी दोस्तियों से
ख़ुद से की गई कई बेवफ़ाइयो से
कई टूटे मज़ार होते हैं
ख़ालीपन में

क्या ख़ूब है तुम्हारा न होना
कई तुम घिर आते हो
ख़ालीपन में

11 June, 2017

खनकती चुभन तुम्हारे न होने की

जैसे बरसती हो
बेनाम बे आवाज़ बारिश
किसी भूले सागर के
धुँधले कोने में

जैसे फैलती हो
अनमनी सी कस्तूरी
किसी अनछुए जंगल के
कँवारे सन्नाटे में

जैसे सुलगती हो
पराई सी चाँदनी
किसी अनजान आकाशगंगा के
मौन झूलते अकेलेपन में

वैसे ही तुम्हारा न होना
भर देता है मुझे
उस बिना जिए ख़ालीपन की
खनकती चुभन से

12 May, 2017

Thursday, April 27, 2017

वो पिघलते साक्ष्य सा संवेदन

शायद उधार ही लिया था 
वो पिघलते साक्ष्य सा संवेदन ,
एक क्षण को वो ही तो था 
ऊंघते ब्रह्माण्ड का उन्मादित आमंत्रण 

पर उफनती  नदी सिर्फ बह  नहीं रही थी 
चल और जल भी रही थी ,
छोड़ती  पीछे मृत सूखे पठार 
वो पिघलते साक्ष्य सा संवेदन 

उदास प्यास की तरेड़ें 
कुरेदी बड़े जतन  से उड़ते युगों तक,
कुछ आदत तो कुछ हमारा आलस  
गुम गया, खो गया 
वो पिघलते साक्ष्य सा संवेदन 

28 April, 2017