Monday, October 10, 2016

अमिताभ - कौतूहल सा एक राग

एक पूरे दौर की हसरतों से बना
आवाज़ का वो महल
सशक्त समर्थ सअर्थ आवाज़
जिसके नुकीले गहरेपन पे मुड़ता है 
उन्मादित युग का एक सागर

आवाज़ जो ढोती है 
एक ज़माने के दर्द 
उसके सपने
उसके प्रेम
और उसका गुस्सा

इस आवाज़ के महल में
सिर्फ दीवारें आवाज़ की बनी हैं
इसे बसाती हैं इसकी खामोशियाँ
इस महल का मालिक 
खेलता है इन सन्नाटों से
बुनता है इन चुप्पियों से
और रचता है इन हँसते अंधेरों से
ये आवाज़ तो बस जिन्दा सांस लेता बर्तन है
उन खामोशियों के जलते स्पंदन का

एक कोलाहल धड़कता है
उन शून्य सघन सन्नाटों में
कौतूहल सा एक राग 
टटोल जाता हमारे संवेदन

परदे पर
उन तिलस्मी अंधेरों में
क्या उकेर जाते हो
हो जैसे तुम्हारा ही कोई तर्जुमा

अभिनय का क्या है
 वो तो शायद नकली भी होता है
तुम सिखाते हो संवेदनाओं को जिन्दा रहना

कहते हैं चिंगारी क्षणिक होती है
सुना है सूरज भी एक चिंगारी है।

11 October, 2016

Friday, September 2, 2016

अजीब है तुम्हारा तसव्वुर

अजीब है तुम्हारा तसव्वुर
धुओं से बने कसीदों सा
जिनका तर्जुमा करना ही तो मेरा होना है।

उलझी बहस से हैं वो तुम्हारे रस्ते
वो खड़ा मैं उन रस्तों पर
अपने ही इंतज़ार में
सूखी ठंडी आग सी वो तुम्हारी बेदिली
ख़ाक न हो सके
हमारी बेकसी

वो साझा शामें शिकायतों की
इन शिकायतों की उलझनों से ही तो उभरती है
अफवाह मेरी जिंदगी की

रूठा सा खालीपन
उसमे डूबती उतरती मेरी प्यास
छीलती तुम्हारी मौजूदगी
अजीब है तसव्वुर तुम्हारा।

Monday, August 15, 2016

लकीरें और कुछ सफेदी

पता तो है
कि
चाँद एक मुठ्ठी में नहीं आता
संसार मेरे बस्ते में नहीं धड़कता
समझ में आता है
रोजी रोटी का कारोबार
अब बड़े हो गए हैं
बड़े?
शायद।
पता तो नहीं चलता
हाँ हैं कुछ
लकीरें और कुछ सफेदी
पर वैसे ही लफंगी हैं हसरतें
वैसी ही घबराहट
वैसे ही लपकता है आवारा पागलपन
आज भी किसी चेहरे, किसी गोद या मुस्कुराहट
में देख लेते हैं ब्रह्मांड की सीमाए
पर पता है
फडफडाता झंडा
खून खौलाने वाला नारा
15 अगस्त का लड्डू
आज़ादी नहीं है
क्यों इतने बड़े हो गए

15 August, 2016

Tuesday, July 26, 2016

बारिश की शाम

धुंध से बुना वो आलसी सा आसमान
एक दुसरे को भिगोते पेड़ और पानी
कुछ शरारत सोचती सी दिल्ली
अपने सूखे पन से छील कर
कुछ शर्माती सी  आयतें उकेरता एक शहर

वो पल जो भीतर तक अमीर कर दे

आज फिर से दिल्ली में बारिश हो रही है।

Sunday, July 24, 2016

वो आदमकद उन्माद

वो एक ख्वाब है
जो रोज कई उमरों को बुनता है
एक उफनता बिखराव
जो जादू बन के हँसता है
एक अबूझ रिश्ता जो 
आज भी चौंकता है
अपने होने पर, फिर अपनी गहराई पर

खालिस आह्लाद
एक सांस लेता वैशिष्ट्य
वो आदमकद उन्माद
वो आदिम थिरक
मोहपाश जो
आत्मा की अनजानी परतों में इठलाता है
मतलब क्या ढूंढना
ऐसे आकर्षण तर्क के मोहताज नहीं होते।

Tuesday, June 28, 2016

बारिश

कुछ बुनियादी, आदिम नशे सी
कुछ भूली खिलखिलाहट सी
कुछ खोये खिलौने सी
कुछ छुपा कर रखे प्यार के कोहरे सी
दिल के किसी गहरे खजाने की चाभी होती है

बारिश

Tuesday, June 21, 2016

कौन हो तुम?

कुछ झूमते हुए झूठ
कुछ रूठे हुए सच
उन उलझे लम्हों का भूला हिसाब ही तो हो तुम

कुछ बेलगाम हसरतों का सहमापन
कुछ उन बिखरी टीसों का पैनापन
उन आवारा रातों का खोया भटकाव ही तो हो तुम

भूलने सा लगा हूँ वो पागलपन 
धुंधला हो चला वो लुटने का चलन 
उस गए वक़्त का एक सुलगता इसरार ही तो  हो तुम

कुछ कर्ज अब चुक चले हैं
कुछ इशारे अब थक चले हैं
उस बूढी ख़ुशी सी शाम में 
बेख़ौफ़ शरारत का एक लरजता तगादा ही तो हो तुम

जब अहसासों की झील मुर्दा आदतों के किनारों में सिमट जाये
जब हसीं लबों से ज्यादा उम्र की लकीरों में जिये
उन  झूलती ख्वाहिशों के कभी न खुलने वाले खतों में 
अधपके नशे सी शोख शिकायत ही तो हो तुम

Sunday, March 13, 2016

कुछ ज्यादा मांगने का दिल है


मौसम ने खुमारी बिछा दी है
सन्नाटा तराश गया है रेशमी अकेलापन
गहरा घूँट लिया है
तुम्हें चाहने की कसक का
आज
कुछ ज्यादा मांगने का दिल है।

उजाले के एक सुर पर अटका था मन
उस सुर से खनका ख्वाब सा नशा
लरजता दर्द गुनगुना गया
अनगढ़े से कुछ शब्द
उस कविता की परछाई में
बस जाने का दिल है
आज
कुछ ज्यादा मांगने का दिल है।

कहते हैं
पाना प्यास को छोटा करता है
कहते हैं
सपनो को छुओ तो वो बदल जाते हैं
पर क्या करें...
आज
कुछ ज्यादा मांगने का दिल है।

Monday, February 22, 2016

वो भूली सी आदत जो शायरी थी

हारे जुआरी सी उठ जाती है
मटमैली हंसी सी धुल जाती है
कविता की हूक ऐसे मिट जाती है
जैसे एक झील सी सूख जाती है

लुप्त हो जाता
अहसासों यादों और भूलों से बना एक शहर
बह सा जाता
दर्द को बूंदें जोड़ बना वो पहर

बुझी लौ की वो धुंधली अकड़
थकी शिकायतों का वो डूबता राग
सोच की शोख मसखरी का वो बिखरता बियाबान
दिल के सहमे बंजरपन का वो मरता अलाव

जब तक थी
दिल बहलाने का एक फरेब थी
सोचा न था ऐसे लूट ले जायगी
वो भूली सी आदत जो शायरी थी।

21 Feb, 2016

उम्र ही तो है

परछाइयों से एक सुलझा सा रिश्ता
धुले मकबरे शिकायतों के
समय की तरेड़ो में
प्यास की गुफाओं में
उम्र ही तो है।

ख्वाबों से हटती हसरतों की थकी सी धूल
टीसें छोड़ती अभिनय शायरी का
काले उलझे शोर को बंद कर
हो जाती है खुद से गुफ्तुगू
उम्र ही तो है।

कुछ मेले सिर्फ देखने के लिए होते
कुछ बहारो में हम नहीं भी होते
सर्द यादों के दहकते कुंड
कीमती समझौतों के उंघते सच
उम्र ही तो है।

महसूस करने और समझने के बीच की खाई पर
सब्र की बूंदों का पुल
तजुर्बे की शराब से न जाने
कितने अहसास गूंध लेता है
उम्र ही तो है।
16 Feb, 2016

अलगाव सी उदासी

झुलसती विरक्ति से पोसी
थकी सी रात का
सूना एक पल

रोशनियाँ बांधती
भूखे अंधेरों से बने चाँद
इक चुप्पी की रजाई
और वो टीसों का तांडव

अलगाव सी उदासी
एक उबा सा वैराग्य
शापित सृष्टियों से सजा
वो
सूना एक पल

कब खटखटाता है ये पल
भूले दोस्त सा अनमना सा
आ खड़ा होता है
जैसे
पुरानी चोट का दर्द

संवेदन के पटल पर
शरमाया सा एक दावा
एक झीनी सी प्यास
जो जिद तो नहीं करती
पर
घेर पूरा लेती है

उस पल के उलझे से सुख
उम्र की दीवार के सूखते रंग
भीतर का धुंधला संसार
सहसा मूर्त हो उठता
भटकते धुंए सा

कितना कीमती है इस पल का
काला खालीपन
जो मुझको मेरे और मेरे सच के
बीच से हटा देता है।

13 Jan, 2016

औरों के सच

सुना है
औरों के भी अपने सच होते हैं
जैसे दूर गाँव में भी मेला लगता है
क्या संभव नहीं
एक आसमान का टुकड़ा जोड़े
उस सच को मेरे सच से

मेरे सिहरते सच
गहरे तो हैं पर पूरे नहीं
एक सिसकी
जो दर्द के ऊपर से गुजर जाती है
एक मुस्कराहट
जो आँखों तक नहीं पहुंचती

अगर सच सिर्फ अपना है तो
कम महसूस भी होता है
मिलता भी कम है
अँधेरे में छिडके काले रंग सा
बारिश में बहाए आंसूओ सा

हम माने बैठे थे
कविता नक्षत्रो की वो बूँद है
जो मुझमे जम कर मोती बनती है
पर है कहीं गैरों के भी सच
जो दे सकता है मुझे और मेरे शब्दों को
अनंत का विस्तार

डर बस इतना है
अपना सच जिया और महसूस किया होता है
बाकी सोचा जाता है
और
काव्य संवेदन है शास्त्र नहीं।

19 Dec, 2015