Wednesday, February 21, 2018

साझेपन की गुदगुदी

साझेपन की एक गुदगुदी होती है
वो कुछ और न पाने की बड़ी महत्वाकांक्षा
वो लू से उड़ते दुःख
वो बेहद गहरे से जी ख़ुशियाँ
वो गुनगुनाती शिकायतै
वो क़ीमती समझौते
वो साथ चले क़दमों की पदचापें

वो साथ के सन्नाटों से बनी मिट्टी
जो बुन देती है एक ब्रह्माण्ड 
समय के उलझे पानी से गुँधकर 

वो साथ के  धुएँ से बनी छेनी
तराशती है पुराण 
उन पिघलते अहसासों के 

कोई पूरा तो किसी का नहीं होता है 
पर किसी से पूरा ज़रूर होता है
तुम हो तो 
एक बेहतर पूरापन मेरा है। 

एक रिश्ता अधिकारों का 
समझौतों का 
वक़्त का 
और उन ग़लतियों का 
जो ख़ुद की जाती हैं 
पर अकेले नहीं

एक कोना 
जहाँ अलगाव नहीं जाता
जहाँ रोने से डर नहीं लगता 
जहाँ हँसता है 
सामान्य का सम्मोहन 
जहाँ, 
ऐ मेरी हमसफ़र,
तुम हो

Feb 22, 2018





क्या बातें करते होंगे...

उस प्रेत प्रहर में
जब रात
अपनी नीरव सूनी 
नियति से समझौता कर लेती है 
जब अंधेरा
अपनी काली रेशमी आत्मा
में स्थिर हो लेता है 
जब बिना बसे जंगल
अपने बियाबान सपनों को
सोख सुखा लेते हैं 
तब दो बिसरे दरख़्त
अपनी झबरी समझ में
रात की नदी के सूखे अंधेरे में
क्या बातें करते होंगे?

Feb 13, 2018

गलते पल

दरिया सा बिछा
गूँज सा पिघला
दर्द सा बहता
सुरुर सा घुलता
पाप सा लरजता
टीस सा ख़ाली
ऊँघती धूप से बने
इन गलते पलों के
बेआवाज़ संगीत का
भरापूरा कारोबार

26 Jan 2018

एक ग़ज़ल

धुँधले दर्दों से छील कर
उकेरी एक पिघली सी ग़ज़ल
कुछ उदास कुछ नाराज़
टीस की भट्टी में जमीं बर्फ़ सी ग़ज़ल 
भूले सुर की थिरकती पीर
उड़ती सी राख सी ग़ज़ल
प्यास के जलते सिलसिले
गर्म रेत की नदी सी ग़ज़ल 
अनाम कोनो की बेआवाज़ बारिश
किसी बेवजूद टापू पर कोंधती सी ग़ज़ल 
आवारा लमहों का सुलगता ख़ुमार
किसी बिना जिए पाप सी ग़ज़ल 
हारी सी एक धड़कन का इसरार
ख़ुद से एक बेतकल्लुफ़ शिकायत सी ग़ज़ल

25 Nov, 2017