हारे जुआरी सी उठ जाती है
मटमैली हंसी सी धुल जाती है
कविता की हूक ऐसे मिट जाती है
जैसे एक झील सी सूख जाती है
लुप्त हो जाता
अहसासों यादों और भूलों से बना एक शहर
बह सा जाता
दर्द को बूंदें जोड़ बना वो पहर
बुझी लौ की वो धुंधली अकड़
थकी शिकायतों का वो डूबता राग
सोच की शोख मसखरी का वो बिखरता बियाबान
दिल के सहमे बंजरपन का वो मरता अलाव
जब तक थी
दिल बहलाने का एक फरेब थी
सोचा न था ऐसे लूट ले जायगी
वो भूली सी आदत जो शायरी थी।
21 Feb, 2016
मटमैली हंसी सी धुल जाती है
कविता की हूक ऐसे मिट जाती है
जैसे एक झील सी सूख जाती है
अहसासों यादों और भूलों से बना एक शहर
बह सा जाता
दर्द को बूंदें जोड़ बना वो पहर
थकी शिकायतों का वो डूबता राग
सोच की शोख मसखरी का वो बिखरता बियाबान
दिल के सहमे बंजरपन का वो मरता अलाव
दिल बहलाने का एक फरेब थी
सोचा न था ऐसे लूट ले जायगी
वो भूली सी आदत जो शायरी थी।
21 Feb, 2016