Monday, February 22, 2016

वो भूली सी आदत जो शायरी थी

हारे जुआरी सी उठ जाती है
मटमैली हंसी सी धुल जाती है
कविता की हूक ऐसे मिट जाती है
जैसे एक झील सी सूख जाती है

लुप्त हो जाता
अहसासों यादों और भूलों से बना एक शहर
बह सा जाता
दर्द को बूंदें जोड़ बना वो पहर

बुझी लौ की वो धुंधली अकड़
थकी शिकायतों का वो डूबता राग
सोच की शोख मसखरी का वो बिखरता बियाबान
दिल के सहमे बंजरपन का वो मरता अलाव

जब तक थी
दिल बहलाने का एक फरेब थी
सोचा न था ऐसे लूट ले जायगी
वो भूली सी आदत जो शायरी थी।

21 Feb, 2016

उम्र ही तो है

परछाइयों से एक सुलझा सा रिश्ता
धुले मकबरे शिकायतों के
समय की तरेड़ो में
प्यास की गुफाओं में
उम्र ही तो है।

ख्वाबों से हटती हसरतों की थकी सी धूल
टीसें छोड़ती अभिनय शायरी का
काले उलझे शोर को बंद कर
हो जाती है खुद से गुफ्तुगू
उम्र ही तो है।

कुछ मेले सिर्फ देखने के लिए होते
कुछ बहारो में हम नहीं भी होते
सर्द यादों के दहकते कुंड
कीमती समझौतों के उंघते सच
उम्र ही तो है।

महसूस करने और समझने के बीच की खाई पर
सब्र की बूंदों का पुल
तजुर्बे की शराब से न जाने
कितने अहसास गूंध लेता है
उम्र ही तो है।
16 Feb, 2016

अलगाव सी उदासी

झुलसती विरक्ति से पोसी
थकी सी रात का
सूना एक पल

रोशनियाँ बांधती
भूखे अंधेरों से बने चाँद
इक चुप्पी की रजाई
और वो टीसों का तांडव

अलगाव सी उदासी
एक उबा सा वैराग्य
शापित सृष्टियों से सजा
वो
सूना एक पल

कब खटखटाता है ये पल
भूले दोस्त सा अनमना सा
आ खड़ा होता है
जैसे
पुरानी चोट का दर्द

संवेदन के पटल पर
शरमाया सा एक दावा
एक झीनी सी प्यास
जो जिद तो नहीं करती
पर
घेर पूरा लेती है

उस पल के उलझे से सुख
उम्र की दीवार के सूखते रंग
भीतर का धुंधला संसार
सहसा मूर्त हो उठता
भटकते धुंए सा

कितना कीमती है इस पल का
काला खालीपन
जो मुझको मेरे और मेरे सच के
बीच से हटा देता है।

13 Jan, 2016

औरों के सच

सुना है
औरों के भी अपने सच होते हैं
जैसे दूर गाँव में भी मेला लगता है
क्या संभव नहीं
एक आसमान का टुकड़ा जोड़े
उस सच को मेरे सच से

मेरे सिहरते सच
गहरे तो हैं पर पूरे नहीं
एक सिसकी
जो दर्द के ऊपर से गुजर जाती है
एक मुस्कराहट
जो आँखों तक नहीं पहुंचती

अगर सच सिर्फ अपना है तो
कम महसूस भी होता है
मिलता भी कम है
अँधेरे में छिडके काले रंग सा
बारिश में बहाए आंसूओ सा

हम माने बैठे थे
कविता नक्षत्रो की वो बूँद है
जो मुझमे जम कर मोती बनती है
पर है कहीं गैरों के भी सच
जो दे सकता है मुझे और मेरे शब्दों को
अनंत का विस्तार

डर बस इतना है
अपना सच जिया और महसूस किया होता है
बाकी सोचा जाता है
और
काव्य संवेदन है शास्त्र नहीं।

19 Dec, 2015