Monday, October 10, 2016

अमिताभ - कौतूहल सा एक राग

एक पूरे दौर की हसरतों से बना
आवाज़ का वो महल
सशक्त समर्थ सअर्थ आवाज़
जिसके नुकीले गहरेपन पे मुड़ता है 
उन्मादित युग का एक सागर

आवाज़ जो ढोती है 
एक ज़माने के दर्द 
उसके सपने
उसके प्रेम
और उसका गुस्सा

इस आवाज़ के महल में
सिर्फ दीवारें आवाज़ की बनी हैं
इसे बसाती हैं इसकी खामोशियाँ
इस महल का मालिक 
खेलता है इन सन्नाटों से
बुनता है इन चुप्पियों से
और रचता है इन हँसते अंधेरों से
ये आवाज़ तो बस जिन्दा सांस लेता बर्तन है
उन खामोशियों के जलते स्पंदन का

एक कोलाहल धड़कता है
उन शून्य सघन सन्नाटों में
कौतूहल सा एक राग 
टटोल जाता हमारे संवेदन

परदे पर
उन तिलस्मी अंधेरों में
क्या उकेर जाते हो
हो जैसे तुम्हारा ही कोई तर्जुमा

अभिनय का क्या है
 वो तो शायद नकली भी होता है
तुम सिखाते हो संवेदनाओं को जिन्दा रहना

कहते हैं चिंगारी क्षणिक होती है
सुना है सूरज भी एक चिंगारी है।

11 October, 2016