Tuesday, May 26, 2015

सुबह का सुस्त कंफ्यूजन


इक शहर उठता है
सुस्त से कन्फ्यूज़न में
हजारों दर्द, उम्मीदें, और सपने
झपटते हैं
अपनी हिस्से की हसरतों पर

कुछ अल्हड़ आलस की एक्टिंग करता
नयी शुरुआत का भरम
शायद सुबह कहते थे उसे।

यथार्थ अभी भी कुछ लिहाज़ में है
पर मुरव्वत के चलन की भी अपनी सीमाएँ हैं।

गुलमोहर का पेड़ अपने रोमांटिक बिम्ब होने का
शर्मीला सा तगादा करता है।
अब हम ही कुछ ज्यादा समझने लगे हैं
इन इशारों की हकीकत

पर है तो कुछ अलग
सुबह का अपना एक अनकहा वादा
थोड़ा सा तैयार करो खुद को लुटने को
और ये सुबह समेट लेगी
तुम्हारे सारे पराजित सपने।

कुछ बुन लेते
कुछ भटक लेते हैं
इस सुबह को
छोड़ने का मन भी तो नहीं करता।

कुछ ख़ुमारी, कुछ रियाज़ और कुछ हमारा नसीब

कुछ तुम्हें शौक है मदहोशी बाँटने का
कुछ होश हमें रास भी नहीं आता

कुछ हमारी हसरतें है अधपकी सी
कुछ बेख्याल दुरुस्त भी है तुम्हारी बेरुखी

कुछ हमें हुनर है लुटने का
कुछ तुम्हे शऊर भी है बेवफाई का

कुछ तंगदिल तुम निकले
कुछ किस्से बुलंद भी हैं
हमारी फाकामस्ती के

कुछ हम यकीं जल्दी करते हैं
कुछ तुम्हें आदत भी है
उन बेपरवाह पलकों को झपकाने की

कुछ ख़ुमारी, कुछ रियाज़ और कुछ हमारा नसीब
तुम्हारी हिकारत का गुलाबी तंज
हमें गुलाबी ही लगता है।