तक़ादा सा करते सड़क पर पड़े पथ्थर
अंधेरे में साये सा खड़ा पेड़
घूरता
हवा की गुत्थी भी एक शिकायत सी लिए
मुड़ा तो धड़कन खड़ी थी
तिरस्कार के शैवाल
जीवन से बनी साँस भी
कुछ घिसी कुछ छिली
एक पिघली सी हँसी गुज़री
पूछती
कब लिखोगे हमें
सफ़ेद काग़ज़ का डाँटता सा सूनापन
रोने की कसक भी दूर
समर्पण भी टुकड़ों में
दर्द भी उधार सा
एक भूले से सपने में कल मिला था
शायरी के
झिझकते उलाहने से
कब लिखोगे?
सो आज ये
खेद सहित......
30 Aug, 2017
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