गुम सी हो गयी ग़ज़ल
बुरा तो ये
कि
बुरा भी नहीं लगता
दिल तो आज भी छिलता होगा
खनकती बारिशें आज भी भिगोती होंगी
रागों का सन्नाटा आज भी भरता होगा चाँद पर कई सागर
ये दर्द
ये उन्माद
ये आह्लाद
थकाता तो है
छलक कर बहता नहीं है
कविता उफनते देखी थी
कुंठा, अपमान, प्रेम और
भूखी मुलायमियत के बाज़ार में
कविता मरते भी देखी थी
संतुष्टि, व्यस्तता और
पठार होते चेतन पर
जो नहीं देखा था
वो था
रंगों का रंगत खो देना
सपनों का गफ़लत खो देना
पाप की मादकता का फीका पड़ जाना
आत्मा में आदतों के रेगिस्तान कब झबरे होने लगे
प्यार की अधपकी मिट्टी का आवारापन कब विनीत स्थापत्य बन गया
नयी चौंकाती खोजें रोज़मर्रा जैसा ठहराव कब से देने लगीं
हृदय की वीरान बांबी के कुलबुलाते सर्प कब से सभ्य हो गए
ब्रह्मांड के बाहर से जब भी देखता हूँ
उत्सव अवसाद खामोशी और आकर्षण के प्रेत वैसे ही मदनोत्सव मनाते दिखते हैं
उलझन सी मेरे होने की सच्चाई में भी
सूत्र, दंशहीन गफ़लत और आदत मेला तो लगाए रखेंगे
पर
ग़ज़ल गुम हो गयी है
और
बुरा तो ये
कि
बुरा भी नहीं लगता ।
31 मार्च 2022
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