कभी रहते थे एक महल में
शायद आज भी रहते हैं
पर फिर मेरा ये घर मुझ से बात क्यों नहीं करता
क्यों इसकी हमेशा सोंधी रहने वाली दीवारें
पिघलते नशे के ग़ीलेपन को छोड़
सूखे लावे के टापू जैसी महसूस होती हैं
शून्य सघन पाप सा चुभता ये महल
सपाट दिनचर्या का थका आश्रय कब बन गया
एक पगलाई झुंझुलाई सी सुंदरता
आदतनुमा आराम में कब बदल गयी
चिंता होती है
अपनी किश्तों में मुरझाती आत्मा की
रोज़ एक नया कतरा मुर्दा मरुस्थल बन जाता है
और एक जीवन है
जो रोज़ छोटे होते इस मैदान को नया नवेला ब्रह्मांड मान
नयी बाज़ी लगाता है
डर है
कहीं समझदारी इस भरम पे भी भारी न हो जाए।
12 Aug 2020
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