Thursday, March 31, 2022

ढहने लगते हैं मेरे होने के महल

 ढहने लगते हैं मेरे होने के महल

जब छलकता है कोई सूना सा प्रश्नचिन्ह
उन इत्मिनान के कोहरों में 
जिनका पिघलता संगीत 
तुम्हारे होने के मेलों की तरफ़ से आता है।

तुम्हारी बारिशों की उदार खनक 
मेरे ख़्वाबों में साँस लेता इंतेज़ार भर तो देती  हैं 
पर मेरी उम्मीदें बुलंद हैं 
तुम्हारी बेरुख़ी की वफ़ाओं में 

शिकायतों के सायों ने 
सुस्त ऊँघते समझौतों ने 
सींच तो रखे हैं कुछ घबराए से खंडहर 
चुप्पियों से गहरी बंबियों में 
जहां हम तुम मिलते हैं 
अपने सबसे उदास दिलों को उठाए हुए 

ये गहराई ही अब सच है 
मिल कर जी खड़ा होता अधूरापन 
स्पर्श जो कई ब्रह्मांडों  का सन्नाटा समेटे
मुस्कुराहट जो सूखी आग की बर्फ़ से बुनी

करोड़ों लरजती ख़ुशियों का मदमाता धुआँ मद्धिम 
जब जाग सिहरता है एक गूँगा जादू 
इन सर्द उदासियों के शर्माते झरनो  का 

8 June 2020

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